Saturday 23 August 2014

संपूर्ण कुण्डली ज्ञान

जन्म  कुण्डली के 1 से लेकर 12 खाने मनुष्य के संपूर्ण जीवन को दर्शातें है, अर्थात मनुष्या के जन्म लेने से लेकर उसके मृत्यु तक का बिश्लेषण भाव 1 से लेकर भाव 12 तक में समाहित है. 
भाव 1 से लेकर भाव 12 के अन्दर ही एक जातक का जन्म उसके रंग रूप, आकर प्रकार, जाती धर्म, नौकरी रोजगार, रहन सहन, कद काठी, अमीरी गरीबी, धर्म कर्म, माँ बाप, भाई बहन, पुत्र पुत्री, पति पत्नी, उपपति उपपत्नी, ज्ञान जिज्ञासा, से लेकर उस जातक के कुटुम्ब, नाते रिस्तेदार, कमाई शिक्षा लाभ घर माकन भवन बाहन जमीन जायदाद रोग ऋण सत्रु आयु मृत्यु और मोक्ष तक को ये 1 से लेकर 12 भाव दर्शाते या बताते हैं.



तो आइये अब हम कुण्डली के इन्ही 1 से लेकर 12 घरों (भावों) का बिबेचन करते हैं.

भाव १ : लग्न ( स्वयं जातक के बारे में )
मानव जीवन की सर्ब प्रथम घटना धरती पर मनुष्य का जन्म के पहली सांस लेना से होता है और यही से लग्न का उदगम होता है। उसके शरीर की बनावट,  रंग - रूप, कद - काठी, जाती - धर्म, धन - सम्पदा अर्जन की क्षमता,  जातक का बिस्तार, स्वभाव, उसकी इच्छा, उसके बिचार, उसका जीवन और उसकी मृत्यु आदि सभी  भाव १  (लग्न) से देखे जाते है।

लग्न या प्रथम भाव शरीर के प्रथम हिस्से यानि सर से सम्बंधित होता है जैसे कपाल या मष्तिष्क। यह मेष राशि से सम्बंधित है। लग्न कुंडली का पहला केंद्र व पहला त्रिकोण होने के कारण यह अति महत्वपूर्ण भाव है। प्रथम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।



*जीवन की शुरुआत और बाल्यावस्था, बचपन।

*जन्म के समय या ठीक उसके बाद होनेवाली घटनाए।

*जातक का ब्यक्तित्वा व उसके शरीर की बनावट, चरित्र -स्वभाव ।

*जातक का रंग - रूप, कद - काठी, व जाती - धर्म आदि।

*स्वस्थ्य, बाहुबल आयु व उसकी मृत्यु।

* जीवन में होनेवाली बीमारियां और उनके इलाज।

*मानशिक शांति व अशांति।




भाव २: धन भाव

भाव १ में  जातक का जन्म तो हो गया परन्तु सरीर को गतिमान बनाए रखने के लिए भोजन, धन, एवं कुटुम्ब (नाते रिस्तेदार) और सबसे महत्वपूर्ण अंग आँख व द्रिष्टि की भी आवश्यकता  होती है। अतः भाव २ जातक के जन्म के समय व उसके बाद जातक के पास उपलब्ध भोजन, धन, कुटुंब व पैतृक संपत्ति को उजागर करता है साथ ही उसके आँख के बारे मे भी बताता है।


धन भाव मारक भाव भी होता है। यदि इस भाव में कोई अशुभ ग्रह हो और उसकी दशा आजाए हो वह मारकेश बन जाता है।द्वितीय भाव बृषभ राशि है यह एक स्थिर व पृथ्वी तत्वा की राशि है जिसके स्वामी दैत्य गुरु शुक्र है जोकि धन व बिलासिता को पूर्ण रूप से फलीभूत करता है। द्वितीय भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*आँख व द्रिष्टि, नेत्र रोग।

*वाक पटुता, वक सिद्धि, स्पीच, सत्य व असत्य वचन।

*द्वितीय व उप-पत्नी।

*जीवनसाथी को रोग व छोटे भाई बहन की क्षति।

*विरासत में प्राप्त या पूर्वजों की संपत्ति प्राप्त करना।

*किस प्रकार  के परिवार में जन्म हुआ है और कौन परवरिश करेगा।

*पारिवारिक रूतवा व संस्कार।

*धन संपत्ति, बैंक बैलेंस, रत्न इत्यादि।




भाव ३: पराक्रम

प्रथम भाव जन्म व शरीर को बताया द्वितीय भाव धन सम्पदा को बताया परन्तु इन धन सम्पदा को कमाने व अर्जित करने व उसको संभालने के लिए एवं शरीर को गतिमान बनाए रखने के लिए जिस कर्मठता, परिश्रम, क्षमता एवं बाहुबल की आवश्यकता होती है उसे कैसे समझा जाए तो भाव ३ मनुष्य के पराक्रम को प्रदर्शित करता है।


तृतीय भाव काम इच्छा व अनिच्छा को दर्शाता है और शुक्र की स्थिति पर निर्भर करता है। यह भाव मिथुन राशि है जिसके स्वामी बुध है और जो अपने वाक्पटुता  के कारकत्वा को फलीभूत करते है।इस भाव को भातृ या सहज भाव भी कहते है और यह सहोदर भाई बहन व उनके साथ रिश्तों को दर्शाता है। दुस्ट ग्रह जैसे शनि, राहु, केतू व मंगल इस भाव में अच्छे परिणाम देते है। यह भाव कन्धा, दायाँ कान, भूजा एवं हाथ से सम्बन्धित है।  तृतीय भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*शौर्य, पराक्रम  निर्भयता

*लघू तीर्थ यात्रा

*पत्र व लघू लेखन कला

*स्वस्थ्य शरीर, सहनशक्ति, हीम्मत, शौक व प्रतिभा।

*दस्तावेज व अनुबन्ध।

*दोस्त, पडोसी व नजदीकी रिसगतेदार।

*मृत्यु के कारन।



भाव ४:भौतिक सुख

मनुष्य के जन्म (लग्न भाव ), पैतृक संपत्ति, कुटुंब (धन भाव) और उसका दृढ़ इच्छा शक्ति  (पराक्रम भाव) तभी सार्थक होंगे जब मनुस्य में कार्य करने की भावना व रूचि होगी अर्थात उसे भौतिक सुखों की चाहत होगी अन्यथा सभी ब्यर्थ है. चतुर्थ भाव भौतिक सुखों (घर, माकन, वाहन आदि ) का और मा का होता है।


चौथा भाव केंद्र जे चरों भाव १, ४, ७  १० में सबसे पवित्र भाव माना गया है। इसीलिए यह मा का घर भी है। चतुर्थ भाव कर्क राशि है जिसके स्वामी चंद्र जो की मन  मस्तिष्क का करक है। चतुर्थ भाव पहला मोक्षकोण है। चन्द्र और शुक्र यहां अच्छे मने गए है। चंद्र, शुक्र, बुध व मंगल इसके कारक ग्रह है। चतुर्थ भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*मा, भूमि, भवन, वाहन प्रशन्नता व घर का वातावरण।

*मा, से पारस्परिक सम्बन्ध, पैतृक सुख।

*घर का सुख, आराम,

*निवासस्थान, अचल संपत्ति, मवेशी, घरेलु सुख।

*बुनियादी शिक्षा।

*जन साधारण से सम्बन्ध।

*छाती या बक्षस्थल, हृदय या फेफड़ा।



भाव ५ : संतान, बिदद्या और ज्ञान

मनस्य ने जन्म लिया शरीर धन शक्ति भी पाया परिश्रमी भी है भौतिक सुखों की कामना भी रखता है परन्तु बिद्दा ज्ञान अनुभव व बैचारिक शक्ति नहीं है अर्थात तकनिकी जानकारी व कार्य बिधि का अभाव है तो वह जीवन भर उन्नति नहीं कर सकता।पांचवा भाव मनुष्य के बैचारिक शक्ति के बिकाश को दर्शाता है।


यह पुत्र, पुत्र सुख व पूर्व पुण्य भाव से भी जाना जाता है। शास्त्रानुसार मनुष्य की आत्मा कुंडली के पंचम भाव से प्रवेश करती है लग्न में शरीर प्राप्त कर दशम भाव में कर्म कर नवम भाव से निर्वाण प्राप्त करती है। इस जीवन की सफलता और बुफलता के बीज पंचम भाव में है। पंचम भाव शरीर की संरचना में पेट व तिल्ली को दर्शाता है। यह सिंह राशि है जिसका स्वामी सूर्य आत्मकारक और बृहस्पति इस भाव के कारक ग्रह है। पंचम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*शिक्षा, ज्ञान, बिद्वता, बुद्धिमत्ता व ज्ञान की ओर झुकाव।

*बच्चे, पूर्व पुण्य व पिछले जनम क्र कर्म।

*लाँटरी या सट्टा से लाभ।

*योग्यता, मन्त्रों का ज्ञान, शास्त्रों का ज्ञान, वेद।

*भक्ति, यादास्तशक्ति।

*प्रेम, इमोसन, फ्लर्टेशन।

*मान, मर्यादा व प्रतिष्ठा।

*दशम से अस्टम होने के कारन नौकरी व्यवसाय में बदलाव या ब्रेक।




भाव ६ : रोग ऋण शत्रु भाव

एक मनुष्य शरीर धन पराक्रम भौतिक सुख सन्तान बिद्या रोमांस आदि का आनंद वह तभी महसूस करेगा जब मनुष्य अड़चनों बिपरीत परिश्थितियों मुश्किलों व शत्रु से जित कर पता है। अतः षष्ठम भाव शत्रु बिरोध बिपरीत परिश्थिति कठिनाई आदि को बताता है।


षष्ठम भाव कुण्डली में अष्टम के बाद दूसरा सबसे बुरा भाव या दुशस्थल माना गया है मंगल के अलावे बाकी सभी ग्रह यहा मृत, असमर्थ, अकर्मण्य या अशुभ फल देते है हालाँकि अपवाद भी है जिसके लिए कुण्डली का पूर्ण व सुक्ष्म अध्ययन आवश्यक है। चूँकि मंगल छठे भाव से आठवीं दृष्टि द्वारा लग्न को बलवान बनाता है इसलिए मंगल को अच्छा माना गया है। षष्टम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*शत्रु, लड़ाई, झगड़ा, विवाद, कारावास व क़ानूनी लड़ाई।

*क्रूरता, रोग व बीमारी।

*एक्सीडेंट, दुर्घटना, चोट-चपेट।

*नुकसान, दुःख, बिपदा।

*कर्ज व उधारी।

*बिरोध, रुकावटें व मुश्किलें।

*निराशा, अपमान व भय।

*चोरी, हानि (११ वे लाभ भाव से अष्टम), सजा।

*मानसिक आवेग, चिंता व परेशानी।

*प्रतिस्पर्धा, सेवाभाव।

*पालतू पशु, नौकर चाकर।

*मामा-मामी व सौतेली मा।




भाव ७ : बिबाह साझेदारी

मनुष्य भले ही शरीर धन पराक्रम भौतिक सुख सन्तान बिद्या रोमांस आदि पाले भले ही अपने शत्रुओ पर भारी पड़े परन्तु यदि उसके पास वीर्य नही है उसके पास जीवनसाथी नहीं है तो वह वास्तविक सुख नहीं पा सकता सातवां भाव वीर्य जीवनसाथी साझेदारी एवं ब्यापार को बताता है।


सप्तम भाव को दारा, कलत्र, युवती भाव भी कहते है यह लग्न के बिपरीत या उल्टा दिशा में होता है। यदि लग्न उदय है तो यह अस्त है। इसे विवाह का भाव भी मानते है और लग्न से एकदम प्रतिमुख होने के कारन सप्तम भाव मारक भाव भी बन जाता है। यह दूसरा कामकोण है।  यह भाव बिबाह का करक और तुला राशि है जिसके स्वामी शुक्र है। इस भाव से सरीर के निचले हिस्से कुल्हा, बड़ी आत और गुर्दा देखे जाते है।शनि इस भाव में उच्च के होते है और कोई भी ग्रह यहाँ नीच का नहीं होता। सप्तम  भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*विवाह जीवनसाथी काम लिव इन रिलेशन पति पत्नी वासना

*व्यापार व्यापारिक साथी व्यापारिक समझौता

*पदप्राप्ति ऊँची पोस्ट पाना (सप्तम भाव दशम से दशम भाव होता है )




भाव ८ : आयु रोग गुप्ता बिद्या

मनुष्य चाहे जितना भी सुन्दर  शरीर धन पराक्रम भौतिक सुख ज्ञान व वीर्य पाया हो और भले ही अपने शत्रुओ पर भारी हो परन्तु यदि निरोग नहीं हो या आयु कम हो तो सब ब्यर्थ है। कुंडली का आठवां भाव रोग, आयु व मृत्यु से सम्बंधित है।इस भाव को मृत्यु भाव भी कहते है। कोई भी ग्रह जो इस भाव में बैठता है या इस भाव से सम्बन्ध रखता है वह अशुभ हो जाता है चन्द्रमा इस भाव में सबसे ज्यादा अशुभ होता है जोकि संतान का नाश करता है। हालाँकि अशुभ ग्रह या अशुभ भाव से सम्बंधित ग्रह यदि असतं भाव में बैठता है या सम्बन्ध बनता है तो यह एक प्रकार का राजयोग होता है।


अष्टम भाव दुशरा मोक्षकोण है यह दुशस्थान यानि प्रतिकूल और बुरा भाव है। इस भाव में इसी भाव के स्वामी (भावेश ) को छोड़ कर कोई भी ग्रह शुभ नहीं होता। यह बृश्चिक राशि है जिसके स्वामी मंगल यहाँ आकस्मिक आपदा का निर्माण करते है। हालाँकि कुशाग्र मंगल जातक को गहन शोधकर्ता बनाता है।यह भाव धड़ के निम्नतम भाग जैसे जननांग व गुर्दा को दर्शाता है। अष्टम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*आयु, रोग, मृत्यु, दुर्घटना,आकस्मिक बिपदा।

*असाध्य व दीर्घकालिक रोग।

*मृत्यु की जगह व बजह, प्राणदण्ड।

*रुकावट, बिच्छेद, बदलाव, निष्काषन, निरादर, हार।

*गुप्त क्रिया, षड़यंत्र, गुप्त सम्बन्ध।

*उत्तराधिकार, पैतृक धन, गुप्त या गड़े धन की प्राप्ति।

*बिदेशयात्रा।

*स्त्रीजातक में मांगल्य, बैबाहिक जीवन में समझैता।

*छुपी हुई प्रतिभा , रहस्य, गुह्यविद्या, अध्यात्म की खोज।




भाव ९ : भाग्य व धर्म

नवम स्थान पिता का है यहाँ से भाग्य व धर्म कर्म की बिबेचना की जाती है। धर्म कर्म से ही भाग्य बनता है और मनुष्य अपने कर्मा पथ पर उन्नति करता है।जीवन में हम जो कुछ भी उपलब्धि हासिल करते है जो कुछ भी अर्जित करते है उन सबका स्थाईत्वा तथा कोई भी धार्मिक व दैविक प्राप्ति नवमेश की स्थिति पर निर्भर करता है। कुण्डली में धन भाव चाहे कितना भी मजबूत क्यों ना हो यदि नवमेश ठीक नहीं है तो कुछ भी धन नहीं बचेगा और जातक कंगाल हो जायेगा। नवम भाव धनु राशि है जिसका स्वामी बृहस्पति हैं। सूर्य और बृहस्पति इस भाव के कारक ग्रह है। यह पाँव के ऊपरी हिस्से व जंघा से सम्बंधित है। नवम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*पिता, ऐश्वर्य, सैभाग्य।

*धर्म, अध्यात्म, तीर्थ यात्रा, धर्म के प्रति झुकाव।

*सलाहकार, अध्यापक, गुरु, शिक्षक।

*लम्बी दुरी की यात्रा, समुद्र या बिदेश यात्रा

*उपासना, भक्ति व धार्मिक अनुष्ठान, अगामी कर्म व अगले जनम के कर्म

*उच्चा शिक्षा, पांडित्य,,दयालुता, उदारता, नाम-यश।

*मंदिर, पूजास्थान।

*पोता-पोती।




भाव १० : कर्म

मनुष्य का जैसा ज्ञान व भाग्य होगा उसको कर्म भी उसी के आधार पर मिलेगा। यहाँ कर्मा का अर्थ नौकरी व जीविकोत्पार्जन से है। इस भाव से भी पिता को देखा जाता है।दशम भाव पंचम भाव से षष्ठम भाव होता है अर्थात हमारे पूर्व पुण्य के आधार पर ही हमें कर्म मिलेगा। शास्त्रानुसार यदि लग्न, पंचम व नवम भाव कमजोर या पीड़ित हो यानि त्रिकोण पीड़ित हो परन्तु दशम भाव बलवान हो तो भी जातक लम्बी सफलता व उन्नत जीवन जीता है। यह भाव पिता के घर संपत्ति से जुड़ा है क्योकि नवम भाव पिता का है और नवम से दशम भाव दूसरा भाव होता है इसीलिए दशम भाव को पिता के घर संपत्ति से जोड़ा जाता है।


दशम भाव मकर राशि है जिसका स्वामी शनिदेव है। शनि को कर्माधिपति अर्थात समस्त कार्यो का स्वामी कहा गया है। यह भाव पेअर के निचले हिस्से और घुटने को दर्शाती है। दशम भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*नौकरी, काम-धंधा, प्रोफेसन, व्यवसाय।

*व्यवसाय व आय के स्रोत।

*व्यावसायिक श्रेष्ठता, व्यापारिक स्वतंत्रता।

*सरकार, सरकारी नौकरी, पदोन्नति।

*यश, मन-मर्यादा, पोलिटिकल पवार, इज्जत व शोहरत।

*त्याग की प्रबृत्ति, धार्मिक पुण्य कर्म।

*पिता के घर व संपत्ति।




भाव ११ : आय व लाभ

इस भाव से मनुष्य आय व लाभ को समझा जाता है। दशम भाव के अंतर्गत जैसा  कर्म किया गया होता है उसका प्रतिफल लाभ या हानि के रूप में एकादश भाव में मिलता है। यह लाभ या बृद्धि का भाव है। एकादश भाव कुम्भ राशि है जिसके स्वामी शनि है। यह भाव आखरी कामकोण है। कामना अच्छी या बुरी हो सकती है। बृहस्पति इस भाव के करक ग्रह है और यह पैर के तीसरे हिस्से पिंडलि और अग्रजंधा से सम्बंधित है। एकादश भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*आय, मुनाफा, उपलब्धि, लाभ उपार्जन व उपार्जन का स्वरुप।

*पुरस्कार, इनाम, ख़िताब।

*अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की पूर्ती।

*दुर्घटना - षष्ठम से छठवां भाव होने के कारन।

*बड़े भाई और बहन।

*पहली संतान की पत्नी या पति - पंचम से सप्तम  होने के कारन।




 भाव १२ :व्यय व मोक्ष

यह भाव व्यय का होता है चाहे वह बीर्य, शरीर, धन, या भौतिक सुखों का व्यय हो। यही भाव मोक्ष का भी होता है।दशम भाव से कर्म करके एकादश भाव में कर्मफल भोगकर द्वादश भाव में मोक्ष की प्राप्ति अर्थात जैसा कर्म वैसा फल। एक अध्यत्मवादी के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण भाव है क्योकि द्वादश भाव मुक्ति व अध्यत्म का भव है। द्वादश भाव मीन राशि है और इसके स्वामी  बृहस्पति है।  शारीरिक रूप से बाईं आँख और पैर का अंतिम भाग (चरण) इस भाव से देखे जाते है। द्वादश भाव से साधारणतः निम्न को देखते है।


*किसी भी प्रकार की हानि या व्यय।

*अच्छे य बुरे किसी भी प्रकार के कार्य से व्यय।

*विदेश में अस्पताल में भर्ती होना।

*विदेशगमन व विदेश में जीवनयापन।

*एकांतवास, आश्रमवास, कारावास, सन्यास।

*गुप्त शत्रु, मानसिक चिंता व अनिद्रा।

*निवेश।

*उदार व दयालु।

*दैविकज्ञान, गोपनीय व गुप्त ज्ञान।

*शय्या के सुख।

*जीवनसाथी की क्षति, किसी चीज का खोना, दुर्भाग्य, तकरार।



कुंडली के भावों के प्रकार



*केन्द्र भाव:  केन्द्र भाव में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव को केन्द्र भाव कहते हैं। इसे काफी शुभ व लक्ष्मी जी की स्थान माना जाता है।



*त्रिकोण  व धर्म भाव: प्रथम, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण, धर्म या पुण्य भाव कहते है ये केंद्र भाव के सहायक होते है। केन्द्र भाव से इनका संबंध राज योग को बनाता है। पंचम व नवम भाव को विष्णु स्थान भी कहते हैं। 



*उपचय भाव: कुंडली में तीसरा, छठवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ भाव उपचय भाव कहलाते हैं। यदि इन भाव में अशुभ ग्रह सूर्य, मंगल, शनि, राहु विराजमान हों तो शुभ माना जाता है क्योंकि ये ग्रह इन भावों में नकारात्मक प्रभावों को कम करते हैं।



*मोक्ष भाव: चतुर्थ, अष्टम और द्वादश भाव को मोक्ष भाव कहा जाता है। अध्यात्म जीवन व मोक्ष की प्राप्ति में इन भावों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।



*अर्थ भाव: कुंडली में द्वितीय, षष्ठम एवं दशम भाव अर्थ भाव कहलाते हैं। यहाँ अर्थ का संबंध भौतिक और सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए प्रयोग होने वाली धन व पूँजी से है।



*काम भाव: कुंडली में तीसरा, सातवां और ग्यारहवां भाव काम भाव कहलाता है। व्यक्ति जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में तीसरा पुरुषार्थ काम होता है।



*दु:स्थान भाव: कुंडली में षष्ठम, अष्टम एवं द्वादश भाव को दुःस्थान भाव कहा जाता है। ये भाव व्यक्ति के जीवन में संघर्ष, पीड़ा एवं बाधाओं को दर्शाते हैं।



*मारक भाव: कुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारक भाव कहलाते हैं। मारक भाव के कारण जातक अपने जीवन में धन संचय, अपने साथी की सहायता में अपनी ऊर्जा को ख़र्च करता है।




ग्रहानुसार रिश्ते 




सूर्य   : पिता, ताऊ और पूर्वज।
चंद्र    : माता और मौसी।
मंगल : भाई और मित्र।
बुध    : बहन, बुआ, बेटी, साली और ननिहाल पक्ष।
गुरु    : पिता, दादा, गुरु, देवता। स्त्री की कुंडली में इसे पति का प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
शुक्र   : पत्नि या स्त्री।
शनि   : काका, मामा, सेवक और नौकर।
राहु    : साला और ससुर। हालाँकि राहु को दादा का प्रतिनि‍धित्व प्राप्त है।
केतु   : संतान और बच्चे। हालाँकि केतु को नाना का प्रतिनि‍धी माना जाता है।




राशि : स्वामीग्रह, स्वामीग्रह के लिंग, संज्ञक व तत्व


राशि
स्वामीग्रह
स्वामीग्रह के लिंग
संज्ञक
तत्व / प्रधान
मेष
मंगल
पुरुष
चर
अग्नि
बृषभ
शुक्र
स्त्रि
स्थिर
पृथ्वी
मिथुन
बुध
पुरुष
द्विस्वभाव
वायु
कर्क
चंद्र
स्त्रि
चर
जल
सिंह
सूर्य
पुरुष
स्थिर
अग्नि
कन्या
बुध
स्त्रि
द्विस्वभाव
पृथ्वी
तुला
शुक्र
पुरुष
चर
वायु
बृश्चिक
मंगल
स्त्रि
स्थिर
जल
धनु
गुरु
पुरुष
द्विस्वभाव
अग्नि
मकर
शनि
स्त्रि
चर
पृथ्वी
कुम्भ 
शनि
पुरुष
स्थिर
वायु
मीन
गुरु
स्त्रि
द्विस्वभाव
जल





ग्रहों की दृष्टि 


ग्रह
दृष्टि अपने भाव से
सूर्य
चन्द्रमा
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
१०
राहु
केतु




*सूर्य और मंगल की उर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चंद्रमा और गुरु की बराबर की तथा राहु और शनि की नीच दृ‍ष्टि होती है।





कारक, दिग्बली व अतिबिशिष्ट करक ग्रह 


ग्रह
करक भाव
 दिग्बली भाव
अतिबिशिष्ट करक भाव
अतिबिशिष्ट करक के परिणाम
सूर्य
१०
११
जीवन धन की कमी नहीं होगी

चन्द्रमा
सुन्दर  समाज में आदर का पात्र

मंगल
१०
१०
अतिपराक्रमी बनता है

बुध
१०
११
अनेकों क्षेत्रों से आय कराता है

गुरु
१०११
उच्च शिक्षा  भाग्यवान बनाते है
शुक्र
१२
ऐश्वर्य  भोगसुख की पूर्ति करते हैं

शनि
१०१२
 
जीवनपर्यन्त पराक्रमी  शत्रुहंता

राहु
१०
---
१०
राजनीतिज्ञ  कूटनीतिज्ञ बनाता है

केतु
---
आकष्मीक लाभ प्रदान करते है






ग्रहों के रंग व दिशा 


ग्रह
रंग
 दिशा
सूर्य
लाल श्याम
पूर्व
चन्द्रमा
सफेद
वायव्य
मंगल
लाल
दक्षिण
बुध
हरा
उत्तर
गुरु
गौरपित्त
ईशान
शुक्र
श्वेत
अग्निकोण
शनि
काला
पश्चिम
राहु
नीला
नैऋत्य
केतु
बिचित्र
---





ग्रह के उच्च, नीच व स्वगृही राशियां 


ग्रह
उच्च
नीच
स्वगृही
सूर्य
मेष
तुला
सिंह
चन्द्रमा
बृषभ
बृश्चिक
कर्क
मंगल
मकर
कर्क
मेषबृश्चिक
बुध
कन्या
मीन
मिथुनकन्या
गुरु
कर्क
मकर
धनुमीन
शुक्र
मीन
कन्या
बृषभतुला
शनि
तुला
मेष
मकरकुम्भ
राहु
धनु
मिथुन
---
केतु
मिथुन
धनु
---






ग्रह मैत्री चक्र


ग्रह
मित्र
शत्रु
सम / सामान्य
सूर्य
चन्द्रमामंगलगुरु
शुक्र शनीराहु
बुध
चन्द्रमा
सूर्यबुध
केतुराहु
शुक्रशनि , मंगल , गुरु
मंगल
चन्द्रमासूर्यगुरु
बुधकेतु
शुक्रशनि
बुध
सूर्यशुक्रराहु
चंद्रमा
शनि , मंगलबृहस्पतिकेतु
गुरु
सूर्य,चन्द्रमामंगल
शुक्रबुध
राहुकेतुशनि
शुक्र
शनिबुधकेतु 
सूर्यचन्द्रराहु
मंगलगुरु
शनि
बुधशुक्रराहु
सूर्य,चन्द्रमामंगल
केतुगुरु
राहु
बुधशनिकेतु
सूर्यशुक्रमंगल
गुरुचन्द्रमा
केतु
शुक्रराहु
चन्द्रमामंगल
गुरुबुधसूर्यशनि

ध्यानदें :
कुंडली में 2, 3, 4, 5, 10, 11, 12, में बैठे ग्रह तात्कालिक मित्र होते है।

कुंडली में 1, 5, 6, 7, 8 एवं भावों में बैठे ग्रह आपस में शत्रु होते है।

किसी भी खाने को खाना  1मान कर मित्रता शत्रुता के लिए यही सूत्र प्रयुक्त होता है।




पंचधा मैत्री चक्र 

ग्रह
अधिमित्र
 मित्र 
सम
शत्रु
अधिशत्रु 
सूर्य
चन्द्रमा
बुध
मंगलगुरुशुक्र शनीकेतु
---
राहु
चन्द्रमा
सूर्यबुध
मंगलशुक्र
केतु
गुरुशनी 
राहु
मंगल
चन्द्रमा 
बुधराहुकेतु
सूर्यगुरुशुक्र
---
शनी
बुध
सूर्य
मंगलशनी
शुक्रराहु,चन्द्रमा
केतु 
गुरु
गुरु
---
राहुशनि
सूर्यचन्द्रमंगल
केतु 
बुधशुक्र
शुक्र
शनि
मंगल 
बुधराहुसूर्यचंद्र
गुरुकेतु
---
शनि
बुध,शुक्र,राहु
गुरुकेतु
सूर्यमंगल
---
चन्द्रमा
राहु
शनि
गुरु
बुधशुक्रमंगल
केतु
सूर्यचंद्र
केतु
शनि

शुक्रबुध 
गुरुराहुसूर्यचंद्रमंगल
---





कुंडली और पारिवारिक सदस्यों का सम्बन्ध  


प्रथम भाव
स्वयं का बिचार
नाना (मा की पिता)
दादी
द्वितीय भाव
धनकुटुंबआँख, दृष्टि
ताई

तृतीय भाव
छोटे भाई बहन


चतुर्थ भाव
मा,
ससुर (पत्नी की पिता)

पंचम भाव
पुत्र  पुत्री
बड़े साले  सालियों
भाभी और बड़े जीजा
षष्टम भाव
मामा  मौसी
चची  फूफा

सप्तम भाव
नानी (मा की मा)
पत्नी
दादा
अस्टम भाव
ताऊ


नवम भाव
छोटे भाई की पत्नी  छोटी बहन के पति
पिता
छोटे साले  सालियों
दशम भाव
पिता
सास (पत्नी की माँ)

एकादश भाव
 पुत्रवधु   दामाद
बड़े भाई  बहन

द्वादश भाव
ममी और मौसा
चाचा  बुवा




बिबेचन 
*प्रथम भाव से स्वयं का बिचार किया जाता है। तो सातवें भाव से पत्नी का। तृतीय भाव से छोटे भाई बहन का बिचार होता है और तृतीय भाव से सातवां यानि नवम भाव से छोटे भाई की पत्नी व छोटी बहन के पति का बिचार होता है। बड़े भाई व बहन का बिचार एकादश तो भाभी और बड़े जीजा का बिचार एकादश से सातवां यानि पंचम से होता है और छोटे भाई-बहन का तृतीय भाव से बिचार किया जाता है।



*चतुर्थ भाव को मातृ भाव कहते हैं  मातृ भाव से तीसरा यानि षष्ठम भाव से मामा व मौसी का बिचार होता है। उसी प्रकार ममी और मौसा का बिचार षष्ठम भाव से सातवां यानि बारहवें भाव से होता है।मातृ भाव से चतुर्थ यानि सातवें भाव से नानी (मा की मा) का बिचार होता है। मातृ भाव से दशम यानि प्रथम भाव से नाना (मा की पिता ) का बिचार होता है।



*पंचम भाव से पुत्र व पुत्री का बिचार होता है और पंचम भाव से सातवां यानि एकादश भाव से पुत्रवधु व दामाद का बिचार होता है।



*जिस प्रकार स्त्री की कुंडली के सप्तम भाव से पति का बिचार किया जाता है उसी प्रकार मातृ भाव यानि चतुर्थ भाव से सप्तम घर यानि दशम भाव से पिता का बिचार करना चाहिए। हालाँकि नवम भाव से पिता का बिचार किया जाता है।



*पितृ भाव यानि दशम भाव से तीसरा भाव यानि द्वादश भाव से चाचा व बुवा और द्वादश भाव से सातवां यानि षष्टम भाव से चची व फूफा का बिचार होता है।दशम भाव से दशवां यानि सप्तम भाव से दादा और सातवें से सातवां यानि प्रथम भाव से दादी का बिचार होता है।दशम भाव से ग्यारवां यानि अष्टम भाव से ताऊ व अष्टम से सातवां यानि दूसरे भाव से ताई का बिचार होता है।



*सप्तम भाव यानि स्त्री के घर से चतुर्थ यानि दसवें भाव से सास (पत्नी की माँ) व सप्तम से दशवां यानि चौथे भाव से ससुर (पत्नी की पिता) का बिचार होता है।छोटे साले व सालियों के लिए सप्तम भाव से तृतीय भाव यानि नवम भाव से होता है। बड़े साले व सालियों के लिए सप्तम से ग्यारवां यानि पंचम भाव से बिचार किया जाता है।



*यदि जातक का सम्बन्ध अपनी माता से अच्छा है हो ससुर से भी अच्छा होना चाहिए। उसी प्रकार यदि जातिका का सम्बन्ध यदि पति से अच्छा है तो सास से भी अच्छा ही रहेगा।



*यदि नानी सफल गृहिणी रही है तो पत्नी भी सफल गृहिणी होती है।



*यदि जातक का स्वभाव नाना एवं दादी के सामान है तो जातक के पत्नी का स्वभाव दादा और नानी जैसा होगा एवं जातक के पुत्र का स्वभाव बड़े साले या बड़े जीजा के स्वभाव जैसा होगा।









कितने होंगे विवाह, ये भी राज खोल देगी कुंडली...



आज के युग में जिस तरह लोगों में भोगी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, अनैतिक संबंध भी उतने ही बढ़ते जा रहे हैं। कई पुरुषों का एक स्त्री से पेट नहीं भरता और अनेक स्त्रियों के कई पुरुषों से संबंध बनते हैं। हिंदू धर्म में एक पति या एक पत्नी के होते हुए दूसरे विवाह की अनुमति नहीं दी जाती है, इसलिए कई लोग चोरी-छुपे दूसरे रिश्ते बनाते हैं।



लेकिन यदि जातक की जन्मकुंडली का सटीक विश्लेषण किया जाए तो यह आसानी से पता लगाया जा सकता है कि संबंधित स्त्री या पुरुष की कितनी पत्नी या कितने पति होंगे। क्या जातक एक से अधिक विवाह करेगा और करेगा तो किन परिस्थितियों में करेगा। आइये जानते हैं इस संबंध में क्या कहते हैं ग्रह योग।



विवाह और संबंधों का कारक ग्रह बृहस्पति होता है। विवाह संबंधों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए कुंडली में बृहस्पति की स्थिति देखी जाती है। उसके साथ अन्य ग्रहों की युति से स्त्री या पुरुष संख्या का पता लगाया जा सकता है।
*सप्तम स्थान जीवनसाथी का भाव होता है। इस स्थान में यदि बृहस्पति और बुध साथ में बैठे हों तो व्यक्ति की एक स्त्री होती है। यदि सप्तम में मंगल या सूर्य हो तो भी एक स्त्री होती है। 



*लग्न का स्वामी और सप्तम स्थान का स्वामी दोनों यदि एक साथ प्रथम या फिर सप्तम स्थान में हों तो व्यक्ति की दो पत्नियां होती हैं। उदाहरण के लिए यदि लग्न सिंह हो तो उसका स्वामी सूर्य हुआ और सप्तम स्थान कुंभ का स्वामी शनि हुआ। यदि सूर्य और शनि दोनों प्रथम या सप्तम स्थान में हों तो दो स्त्रियों से विवाह होता है। या स्त्री की कुंडली है तो दो विवाह होते हैं। ऐसा समझना चाहिए।



*सप्त स्थान के स्वामी के साथ मंगल, राहु, केतु, शनि छठे, आठवें या 12वें भाव में हो तो एक स्त्री की मृत्यु के बाद व्यक्ति दूसरा विवाह करता है। 



*यदि सप्तम या अष्टम स्थान में पापग्रह शनि, राहु, केतु, सूर्य हो और मंगल 12वें घर में बैठा हो तो व्यक्ति के दो विवाह होते हैं। 



*लग्न, सप्तम स्थान और चंद्रलग्न इन तीनों में द्विस्वभाव राशि यानी मिथुन, कन्या, धनु या मीन हो तो जातक के दो विवाह होते हैं। 



*लग्न का स्वामी 12वें घर में और द्वितीय घर का स्वामी मंगल, शनि, राहु, केतु के साथ कहीं भी हो तथा सप्तम स्थान में कोई पापग्रह बैठा हो तो जातक की दो स्त्रियां होती हैं। स्त्री की कुंडली में यह फल पुरुष के रूप में लेना चाहिए। 



*शुक्र पापग्रह के साथ हो तो जातक के दो विवाह होते हैं। 



*धन स्थान यानी दूसरे भाव में अनेक पापग्रह हों और द्वितीस भाव का स्वामी भी पापग्रहों से घिरा हो तो तीन विवाह होते हैं।